" गौरक्षक जुंझार नरपतसिंहजी "
" सर्वदेवमये देवि सर्वदेवैर लंकृतै| मातरर्ममाभिलषितं सफलम कुरुनंदिनी ||"जिन देवी-देवताओं की पूजा हम मंदिर और तीर्थों में जाकर करते हैं वो सभी 33 कोटि देवी-देवता गौ माता में विद्यमान हैं| इस उक्ति की सार्थकता सिद्ध करती गौरक्षक जुंझार नरपतसिंहजी की वीर गाथा इस प्रकार हैं:- शेखासर गांव (हाल: टेपू ) के ठाकुर जोगराजसिंह जी केलण भाटी के घर कुँवर नरपत सिंह का जन्म हुआ | युवा अवस्था में उनकी शादी की चर्चा होने पर वह हमेशा मना कर देते थे | कई बार तो लड़की को चुन्नी ओढाकर अपनी बहन मान लेते थे | मूलतः उन्हें अपना भविष्य और गौरक्षा हेतु बलिदान प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था| उनके परमसाथी बलिदानसिंहजी देपा भाटी (भींवजी का गांव) , जोरसिंहजी प्ऊ भाटी (सांगौरी) और फुसारामजी (अखादडा) थे | उनके द्वारा शादी की बात करने और बारात चलने की बात करने पर नरपतसिंहजी का जवाब यह था कि उनकी बारात को अमरापुर (ईश्वर-नगरी) जायेगी | इस तरह उन साथियों में बातचीत होती रहती थी| " सेखासर सरवर सही, साची देवै साख| भड भिडिया भुरजाला,नीर निरमल चाख||" एक दिन नरपत सिंह अपनी कोटडी में मित्रों के साथ वार्तालाप कर रहे थे तभी उन्हें एक औरत की रोते हुवे आवाज सुनाई देती हैं| जो अपने गायें चोरी हो जाने के कारण मदद की गुहार लगा रही थी| उस चारणी बाई की आवाज सुनकर नरपतसिंह जी बाहर आयें और उन्होंने चारणी बाई की व्यथा सुनकर आश्वासन दिया कि तुम बहन अपने घर जाओं | मेरे होते हुवे तुम्हारी गायें कोई कैसे लेकर जा सकता हैं? मैं उन दुष्टों से आज ही तुम्हारी गायें वापस लेके आऊंगा | यह वचन देकर उन्होंने अपने मित्रों को आवाज दी कि तुम्हारे साथी की बारात जा रही हैं,चलों | तीनों साथी स्तिथि और अपने कर्त्तव्य समझकर तैयार हो गए|सही ही कहा गया हैं:- "टेपू री टनकी धरा, खरी ज रजवट खांण| जोग सुतन राखी जबर, ऊंची अनमि आन || " नरपतसिंहजी अपने साथीयों के साथ घुड़सवार होकर उनके पीछा करने चल पड़े| रास्ते में सुगन चिड़ि के शुगुन से उन्होंने अपनी विजय और वीरगति को भांप लिया | " सुर नी पूछे टिपनों, सुकुन नी देखे सुर| मरण नै मंगल गिने, समर चढे मुख नुर||" नरपतसिंह जी द्वारा चेतावनी देने के बावजूद नही मानने पर नरपतसिंह जी ने साथियों सहित 50 से अधिक दुष्टों के दल पर धावा बोल दिया | नरपतसिंहजी ने अपनी तलवार से लुटेरों के सिर धड़ से अलग कर दिए| युद्ध मैदान में एक लुटेरे ने अपनी बन्दूक की गोली से नरपतसिंहजी पर निशाना साधा| इस घाव के जखम के बावजूद नरपतसिंह जी का क्षत्रिय-रणकौशल जारी था| दुश्मन द्वारा उनका सिर काट देने के बाद भी उनका धड लड़ता रहा और उन्होंने सारे दुश्मनों का सर्वनाश किया | इस युद्ध में फुसारामजी के तीनों साथी वीरगति को प्राप्त हो गए | "सुरभि खातर सुरमे , सुघड़ बेलियां संग | सीस दियो सुत जोग रे, रंग हो केलण रंग|| काढ अरियाँ कालजा , परतख दे परमाण | गायां लायों घेर नै , केलण चढ़ कैकाण ||" फुसारामजी उनके पार्थिव शरीर को अपने साथ ले आयें और गांव वालों को सारी वीर गाथा बताई| इस तरह नरपतसिंह जी ने गौरक्षा करके अपना क्षत्रिय धर्म का पालन किया और जग में वो अमर हुवे| "दीधा माथा देसहित , हित चिन्तक हरमेस| वां सुरां नै वसु समरे, सदा नर सेस सुरेस||" हर वर्ष वैशाख माह के शुकल पक्ष तृतीया को गौरक्षक जुंझार नरपतसिंहजी के मंदिर धाम में मेला लगता हैं और इनकी पूजा की जाती हैं| "जायो भलो ज जामनी , जोगराज घर जोर | नामी नरपतसिंह रो , इल जस छायो और || सेवक हितु समाज रो , क्षातर धरम सिरमोड़ |वाह बंका नर वीरवर, हुवे ना थारी होड़||" ( नोट:उनकी इस वीर-गाथा को youtube पर नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करके देखा जा सकता हैं|)

