संस्कारी माता नेत कंवर भटियाणी (दुर्गादास की माता की जीवनी) एवम वीर पुत्र दुर्गादास जी का जीवन परिचय
सुसंस्कारी माता नेत कंवर केलण भटियाणी (दुर्गादास जी की माता की जीवनी)
माँ नेतकंवर भटियाणी ( केलण )का पूर्ण जीवन दर्शन प्रस्तुत करने से पूर्व चार सतियोँ का वर्णन करना आवश्यक समझता हूं।प्रथम सती मदालसा थी जिसने कई सन्तानों को गर्भ मैं ही ब्रह्मयोग की दीक्षा से दीक्षित कर ही जन्म दिया। वे सन्तानें होश संभालते ही तपश्चर्या हेतु वन गमन किया और बहुत बड़े ब्राह्मदेवता बने। राजा स्वयं व प्रजाजन इस बात से दुखी थे कि इस प्रकार सभी संन्तानें सन्यास मार्ग को अपनायेगी तो शासक का भार कौन संभालेगा। इस पर सभी प्रजाजनों ने उन्हे उत्तराधिकारी राजा बनने वाली संतान हेतु विनय की तो अंतिम संतान योग्य शासक कि समसत उपलब्धियों लिए हुए पैदा हुआ और शासक बना |दूसरा उदाहरण सुभद्रा का है जिसने अभिमन्यु को युद्ध की समस्त विभीषिकाओं से गर्भ में अवगत करा कर ही जन्म दिया| तीसरा उदाहरण विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्ष करने हेतु शिवाजी को तैयार करने माता जीजाबाई का समरण बड़े आदर से हर भारतीय करता है ।चौथी कुन्दन कंवर तंवरजी अपनी आन बान से जाने वाली मावण्ड की राजकुमारी थी गुढा ठाकुर जगरामसिंह से विवाहित थी ।पति से अनबन होने पर अपने पीहर गई व पुत्र शार्दुल सिंह को इतना जबरदस्त सौष्ठव शरीर वाला वीर बुद्धि चातुर्य से प्रवीण किया कि अपने ठिकाने से अपेक्षित एवं निर्वासित राजकुमारी एक दिन झुंझुनू का अधिपति बना। एक मां ही ऐसी शख्सियत होती है जो पुत्र से असंभव दिखने वाले कार्य को सम्भव करने की प्रेरणा लेकर अंजाम तक पहुंचा देती है।
वर्ष 1634 में सिंध के बलुचियों ने फलोदी पर आक्रमण कर अतिक्रमण कर लिया था उन्हें खदेड़ने के लिए महाराजा गजे सिंह जोधपुर ने आशकरण करणोत राठौड़ को सेना देकर भेजा आसकरण अदम्य साहस दिखाते हुए आक्रमण कर बलुचियों को वापिस सिंध भाग जाने को विवश कर विजय प्राप्त की फलौदी से आते समय आसकरण अपने ससुराल जेमला गांव (बाप)में रुक गए ।जंवाई का विजय अभियान पर बड़ा स्वागत-सत्कार किया गया सुबह का समय था कोट के आगे चबूतरों पर बैठे गांव के गणमान्य पुरुष अमल की मनुहारें कर रहे थे।हुक्कों की गड़गड़ाहट बदस्तूर जारी थी । इतने में ही आसकरण की दूर से पानी लाती है एक नव योवना पर नजर पड़ी जिस के मार्ग में दो भैंसे से लड़ रहे थे।उस सौष्ठव बलिष्ठ भुजाओं वाली बाला ने दोनों भैंसों के सींग पकड़ कर अलग करते हुए बीच से राह बनाकर अपने घर की राह ली । आश करण के पूछे जाने पर की “यह डावड़ी किणरी बेटी है?”उपस्थित भाटी सरदारों ने भगवानदास (केलण भाटी )की पुत्री बतलाया ।आसकरण के मन मस्तिक में एक विचार कौंध गया की जब यह बाला इतनी बलिष्ठ हैं तो इससे होने वाली संतान बहुत ही बड़ी बलवान होगी यह विचार कर भाटी सरदारों के समक्ष नेतकंवर का विवाह उनसे करने का प्रस्ताव रख दिया |आसकरण करणोत के इससे पूर्व 2 विवाह हो चुके थे एक विवाह सिसौदिया के दूसरा नेतकंवर की भुवासा लालकंवर से हुआ था । लालकंवर का विवाह 9-10 साल पूर्व ही हुआ था कि इस विजय अभियान के दौरान नेतकंवर से तीसरा विवाह सम्पन्न हो गया । जिन्दगी बड़े हर्षोउल्लास से गुजर रही थी ।इसी दरमियान दिनांक 13 अगस्त सन 1638 में नेतकंवर के गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ भारतीय पंचांगनुसार श्रावण शुक्ल चौदस सोमवार संवत 1695 को जन्म हुआ। बालक का नाम दुर्गादास रखा गया। कुल पंडितों के भविष्य दर्शन टिप्पणी के अनुसार बड़ा भाग्यवान और संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी बताया। विद्वानों ने सही कहा है कि सुसंस्कारित भाग्यवान बाला के इस प्रकार के होनहार बालकों का जन्म होता है। कौशल्या के गर्भ से ही राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम का जन्म हो सकता था। हर नारी में वह नूर कहां जो राम जैसे पुत्र को जन्म दे सके। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनकी माताओं की महानता स्वयं सिध्द ही प्रतिपादित है । कर्म प्रधान युग में एक कवि की कविता का आखिरी अंश है
“अपनी करणी कर होत बड़ो
पितु वंश बड़ो तो कहा कर है ।”
मेरी इस पर अवधारणा है की करणी उन्ही की महान होती हैं जिनकों ममतामयी मां से सुसंस्कार व सद्गुण सहज ही प्राप्त होता है।
दुर्गा दास के जीवन चरित्र पर अनेक कवियों ने कलम चलाकर साहित्य सर्जन कर अपने आपको धन्य माना एवं सत्ताईस लेखको ने जीवन चरित्र का वर्णन कर पाठकों को उस संघर्षशील एवं सही अर्थों में राजपूत का चरित्र दर्शाकर साहित्य को धन्य कर दिया ।लेकिन किसी ने इस ओर इतना व्रहद् इतिहास पर जोर नहीं दिया कि जो जो दुर्गादास में विशेषता थी उन समस्त गुणों का दुर्गादास के जीवन में पौधा अंकरण कर पुष्पित पल्लवित होने तक एवं द्रढ़ विचारों को परिपक्व होने तक संचरण किया वो नेतकंवर भटियाणी ही थी ।
आन-बान की धनी नेतकंवर अपने मर्यादित एवं द्रढ़ संकल्पितजिवन में अन्य किसी विचार से समझौता करने वाले ने होने के कारण अपनी दो सोतन स्त्रियों व पति से अनबन होने के कारण आसकरण की जागीर का गांव लूणवा जो सार्वजनिक से चार कोस की दूरी पर था नेतकंवर व दुर्गादास को रहने का स्थान निश्चित कर दिया था नेतकंवर अब अपने निर्वासित कुमार को लेकर लूणवा में आकर रहने व कृषि कार्य करवा कर अपना गुजारा बसेरा का संघर्षमय जीवन आरंभ किया था प्रजा के सभी जन अपने राजा में ईश्वर का रूप देखते थे और राजा भी अपनी रियाया को पुत्र व्यवहार से पालन पोषण हुए संरक्षण करता था आसकरण स्वयं भी उसी राजा के राज्य के दीवाने थे अतः स्वामी भक्ति के गुण रक्त की तासीर से भी मिले एवं माता की सिखलाई ने राजा के प्रति समर्पण का भाव भर दिया की राईके द्वारा ऊंटानियां धोले ढुण्डे वाले की बताई तो अपने राज्य के गढ का धोला ढुण्डा सुनना गवारा न हुआ और सिर कलम कर दिया यह उनकी स्वामी भक्ति की चरम कोटि की स्थिति थी । इस भाव को जीवन भर बनाए रखा यहां तक कि उज्जैन में अपने जीवन केअन्तिम क्षणों मै भी बादल उमड़ -घुमड़ कर आते तो वे बादलों से यही कामना करते थे कि हे बादल मेरे मारवाड़ में जाकर बरस । इस भाव की संचारिका मां नेतकंवर ही तो थी ।
आश्विन का शुक्ल पक्ष चल रहा था । आसकरण अपना तलवारों की दशहरे पर बानी (राख) एवं आंकड़े की गीली तडियों से सफाई कर रहे थे । मां नेतकंवर पास में बैठी पंखा झल रही थी। बच्चों के साथ दुर्गादास भी खेल रहे थे । इतने में ही दो सांड लड़ते हुए उधर आ गये, सभी बच्चे डरते हुए भाग छोटे किंतु दुर्गादास ने लड़ते हुए सांड का कान पकड़ लिया तो सांडों ने लड़ना बंद कर दुर्गादास की ओर दौड़ा। दुर्गादास कहां रहने वाला था। दौड़कर अपनी मां की गोद में जा बैठा । मां द्वारा हांफने का कारण पूछा तो सारा वृत्तांत सांड का कान पकड़ने का बताया। इस पर मां के आंसू आ गए पुत्र द्वारा आंसुओं का कारण पूछा तो मां ने कहा “तू दौड़ मै बहुत तेज है इस कारण आंसू आ गए कहीं रणभूमि में पीठ दिखाकर ना दौड़ आये और मेरे दूध को न लजादे।” माता का यह शब्द सुन पास में पड़ी पिता की तलवार पैर पर दे मारी और माता से कहा यह तेरी काट देता हूं ताकि दौड़ने की आप की आशंका सदेव सदेव के लिए खत्म हो जाए तथा आपका दूध पीने लजा सकूं । माता पिता ने पैर का समुचित इलाज जर्रे से करवाया। 1 दिन की सीख से जीवन भर माँ नेतकंवर के दुध को उज्ज्वल कर दिया ।
मां ने बात का इतना पक्का बना दिया कि एक बात जीवन की कसौटी बन गई और हर क्षण कसौटी पर खरा उतरने को आमादा रहे ।शिकार के दौरान दुर्गादास को पेड़ की छांव में नींद आ गई ज्योंही सुर्य ढला मुंह पर धुप आ गई । महाराजा जसवंत सिंह ने अपनी शेरवानी पल्ले से दुर्गा दास के मुख पर छाया की तो उनके सिपहसालार कहने लगे अन्नदाता इस अदने से नोकर पर आपने क्यों छाया कि महाराजा ने फरमाया “मैं तो एक दुर्गादास पर ही छाया कर रहा हूं ये कल पूरी मारवाड़ पर छाया करेगा।” और दुर्गादास नाम किस बात पर खरा उतर कर एक राजपूत के उदात्त चरित्र का परिचय दिया। जीवन भर संघर्ष कर जब जोधपुर का राज्य मुगलों से मुक्त करवाया तो दुर्गादास ने मेहरानगढ के कगुरों पर जमी धूल को अपनी पगड़ी के पल्ले से पोंछ कर मारवाड़ के जर्रे -जर्रे से प्यार सबूत दिया जो माँ नेतकंवर ने अनपढ़ पत्थर को तराश कर दुर्गादास बना दिया जो ने केवल मारवाड़ का अपितु समस्त हिन्दू जाती एवं समूचे राष्ट्र का सपूत बनकर आने वाली पीढ़ियों को छात्र धर्म का पाठ पढ़ा गया।
माता ने इस उपेक्षित कुमार को अपना स्वयं का तथा गो माताओं का दूध पिला पिला कर इतना सबल बना दिया कि एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने नो इक्को (पहलवानों) को दुर्गादास को मारने के लिए भेजे । दुर्गादास उस समय घोड़े पर चढे हुये भाले से अंगारों में बाटी सेक रहे थे ।इक्कों द्वारा ललकारने पर दुर्गादास ने कहा सब लड़ोगे या एक एक ।उनमे से एक ने कहा हम मै से एक ही तुम्हारे लिए बहुत है । दुर्गादास ने बाटी खाई, छागल का पानी पीकर खंखारा कर इक्कों पर टूट पड़े आठ को यमपुर पहुंचा दिया । आखिरी एक बचा उसके कान काट कर बादशाह को समाचार सुनाने हेतू भेज दिया । ये पुष्टता मां नेतकंवर के दुध की ही थी ।
गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने एक जगह लिखा है कि राजपूतों के समस्त गुण यदि एक ही व्यक्ति में देखना चाहो तो वह चरित्र दुर्गादास राठौर ही है । ये नेतकंवर भटियाणी का लाल जन जन की वाणी पर यह बात छोड़ गया जो कवि ने कहा था,
“डबक डबक ढोल बाजे , देदे ताल नगारा पर ।
आसे घर दुर्गो नही हो तो , सुन्नत होती सारां की।”
वीर शिरोमणि दुर्गादास जी राठौड़
जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी…..उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौड़…
समय – सोहलवीं – सतरवी शताब्दी
चित्र – वीर शिरोमणि दुर्गा दस राठौड़
स्थान – मारवाड़ राज्य
वीर दुर्गादास राठौड का जन्म मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर सं. 1695 श्रावन शुक्ला चतुर्दसी को हुआ था। आसकरण जी मारवाड़ राज्य की सेना में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी की सेवा में थे ।अपने पिता की भांति बालक दुर्गादास में भी वीरता कूट कूट कर भरी थी,एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर झट से ऊंट की गर्दन उड़ा दी,इसकी खबर जब महाराज जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो वे उस वीर बालक को देखने के लिए उतावले हो उठे व अपने सेनिकों को दुर्गादास को लेन का हुक्म दिया ।अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए,आस्करण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे सकपका गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुवा की यह आस्करण जी का पुत्र है,तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर लिया।
उस समय महाराजा जसवंत सिंह जी दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे,फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी और वह हमेशा जोधपुर हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था ।सं. 1731 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवंत सिंह जी को भेजा गया,इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही वीर गति को प्राप्त हो गए । उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थी,दोनों ने एक एक पुत्र को जनम दिया,एक पुत्र की रास्ते में ही मौत हो गयी और दुसरे पुत्र अजित सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर ओरंग्जेब ने अजित सिंह की हत्या की ठान ली,ओरंग्जेब की इस कुनियत को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और मुकंदास की सहायता से स्वांग रचाकर अजित सिंह को दिल्ली से निकाल लाये व अजित सिंह की लालन पालन की समुचित व्यवस्था करने के साथ जोधपुर में गदी के लिए होने वाले ओरंग्जेब संचालित षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते अपने कर्तव्य पथ पर बदते रहे।
अजित सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी,ओरंग्जेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक सघर्ष किया,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा । महाराज अजित सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ कान भर दिए थे जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे वस्तु स्तिथि को भांप कर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना ही उचित समझा ।और वे मारवाड़ छोड़ कर उज्जेन चले गए वही शिप्रा नदी के किनारे उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे व वहीं उनका स्वर्गवास हुवा ।दुर्गादास हमारी आने वाली पिडियों के लिए वीरता, देशप्रेम, बलिदान व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे ।
१-मायाड ऐडा पुत जाण, जेड़ा दुर्गादास । भार मुंडासा धामियो, बिन थम्ब आकाश ।
२-घर घोड़ों, खग कामनी, हियो हाथ निज मीत सेलां बाटी सेकणी, श्याम धरम रण नीत ।
वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 में हुवा था इनका अन्तिम संस्कार शिप्रा नदी के तट पर किया गया था ।
“उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ हृदये को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमे राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी ”
इसी वीर दुर्गादास राठौर के बारे में रामा जाट ने कहा था कि “धम्मक धम्मक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारां की,, जो आसे के घर दुर्गा नहीं होतो,सुन्नत हो जाती सारां की…….
आज भी मारवाड़ के गाँवों में लोग वीर दुर्गादास को याद करते है कि
“माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश”
हिंदुत्व की रक्षा के लिए उनका स्वयं का कथन
“रुक बल एण हिन्दू धर्म राखियों”
अर्थात हिन्दू धर्म की रक्षा मैंने भाले की नोक से की…………
इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होने सारी उम्र घोड़े की पीठ पर बैठकर बिता दी।
अपनी कूटनीति से इन्होने ओरंगजेब के पुत्र अकबर को अपनी और मिलाकर,राजपूताने और महाराष्ट्र की सभी हिन्दू शक्तियों को जोडकर ओरंगजेब की रातो की नींद छीन ली थी।और हिंदुत्व की रक्षा की थी।
उनके बारे में इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा था कि …..
“उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति उनके दृढ निश्चय को पीछे हटा सकी,बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमे राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी”.
ये निर्विवाद सत्य है कि अगर उस दौर में वीर दुर्गादास राठौर,छत्रपति शिवाजी,वीर गोकुल,गुरु गोविन्द सिंह,बंदा सिंह बहादुर जैसे शूरवीर पैदा नहीं होते तो पुरे मध्य एशिया,ईरान की तरह भारत का पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता और हिन्दू धर्म का नामोनिशान ही मिट जाता…………
28 नवम्बर 1678 को अफगानिस्तान के जमरूद नामक सैनिक ठिकाने पर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया था उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया | और इन गर्भवती रानियों को सैनिक चौकी से लाहौर ले आया गया जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक एक पुत्र को जन्म दिया,बड़े राजकुमार नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथंभन रखा गया
ये वही वीर दुर्गा दास राठौड़ जो जोधपुर के महाराजा को औरंगज़ेब के चुंगल ले निकल कर लाये थे जब जोधपुर महाराजा अजित सिंह गर्भ में थे उनके पिता की मुर्त्यु हो चुकी थी तब औरंगज़ेब उन्हें अपने संरक्षण में दिल्ली दरबार ले गया था उस वक़्त वीर दुर्गा दास राठौड़ चार सो चुने हुए राजपूत वीरो को लेकर दिल्ली गए और युद्ध में मुगलो को चकमा देकर महाराजा को मारवाड़ ले आये…..
उसी समय बलुन्दा के मोहकमसिंह मेड़तिया की रानी बाघेली भी अपनी नवजात शिशु राजकुमारी के साथ दिल्ली में मौजूद थी वह एक छोटे सैनिक दल से हरिद्वार की यात्रा से आते समय दिल्ली में ठहरी हुई थी | उसने राजकुमार अजीतसिंह को बचाने के लिए राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदल लिया और राजकुमार को राजकुमारी के कपड़ों में छिपाकर खिंची मुकंददास व कुंवर हरीसिंह के साथ दिल्ली से निकालकर बलुन्दा ले आई | यह कार्य इतने गोपनीय तरीके से किया गया कि रानी ,दुर्गादास,ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास,कु.हरिसिघ के अलावा किसी को कानों कान भनक तक नहीं लगी यही नहीं रानी ने अपनी दासियों तक को इसकी भनक नहीं लगने दी कि राजकुमारी के वेशभूषा में जोधपुर के राजकुमार अजीतसिंह का लालन पालन हो रहा है |
छ:माह तक रानी राजकुमार को खुद ही अपना दूध पिलाती,नहलाती व कपडे पहनाती ताकि किसी को पता न चले पर एक दिन राजकुमार को कपड़े पहनाते एक दासी ने देख लिया और उसने यह बात दूसरी रानियों को बता दी,अत: अब बलुन्दा का किला राजकुमार की सुरक्षा के लिए उचित न जानकार रानी बाघेली ने मायके जाने का बहाना कर खिंची मुक्न्दास व कु.हरिसिंह की सहायता से राजकुमार को लेकर सिरोही के कालिंद्री गाँव में अपने एक परिचित व निष्टावान जयदेव नामक पुष्करणा ब्रह्मण के घर ले आई व राजकुमार को लालन-पालन के लिए उसे सौंपा जहाँ उसकी (जयदेव)की पत्नी ने अपना दूध पिलाकर जोधपुर के उतराधिकारी राजकुमार को बड़ा किया |
((वीर दुर्गादास राठौड़ के सिक्के और पोस्ट स्टाम्प भारत सरकार पहले ही जारी कर चुकी है ))
अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से मुक्त कराने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता जोधपुर राज्य के दीवान श्री आसकरण तथा माता नेतकँवर थीं। आसकरण की अन्य पत्नियाँ नेतकँवर से जलती थीं। अतः मजबूर होकर आसकरण ने उसे सालवा के पास लूणवा गाँव में रखवा दिया। छत्रपति शिवाजी की तरह दुर्गादास का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया। उन्होंने दुर्गादास में वीरता के साथ-साथ देश और धर्म पर मर-मिटने के संस्कार डाले।
उस समय मारवाड़ में राजा जसवन्त सिंह (प्रथम) शासक थे। एक बार उनके एक मुँहलगे दरबारी राईके ने कुछ उद्दण्डता की। दुर्गादास से सहा नहीं गया। उसने सबके सामने राईके को कठोर दण्ड दिया। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें निजी सेवा में रख लिया और अपने साथ अभियानों में ले जाने लगे। एक बार उन्होंने दुर्गादास को ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ कहा;पर वीर दुर्गादास सदा स्वयं को मारवाड़ की गद्दी का सेवक ही मानते थे।
उस समय उत्तर भारत में औरंगजेब प्रभावी था। उसकी कुदृष्टि मारवाड़ के विशाल राज्य पर भी थी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक जसवन्त सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने भेज दिया। इस अभियान के दौरान नवम्बर 1678 में जमरूद में उनकी मृत्यु हो गयी। इसी बीच उनकी रानी आदम जी ने पेशावर में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया। जसवन्त सिंह के मरते ही औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर कब्जा कर वहाँ शाही हाकिम बैठा दिया। उसने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। वस्तुतः वह उसे मुसलमान बनाना या मारना चाहता था।
इस कठिन घड़ी में दुर्गादास अजीत सिंह के साथ दिल्ली पहुंचे। एक दिन अचानक मुगल सैनिकों ने अजीत सिंह के आवास को घेर लिया। अजीत सिंह की धाय गोरा टांक ने पन्ना धाय की तरह अपने पुत्र को वहां छोड़ दिया और उन्हें लेकर गुप्त मार्ग से बाहर निकल गयी। उधर दुर्गादास ने हमला कर घेरा तोड़ दिया और वे भी जोधपुर की ओर निकल गये। उन्होेंने अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गाँव में पुरोहित जयदेव के घर रखवा कर मुकुनदास खीची को साधु वेश में उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। कई दिन बाद औरंगजेब को जब वास्तविकता पता लगी, तो उसने बालक की हत्या कर दी।
अब दुर्गादास मारवाड़ के सामन्तों के साथ छापामार शैली में मुगल सेनाओं पर हमले करने लगे। उन्होंने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह तथा मराठों को भी जोड़ना चाहा; पर इसमें उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली। उन्होंने औरंगजेब के छोटे पुत्र अकबर को राजा बनाने का लालच देकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह के लिए तैयार किया; पर दुर्भाग्यवश यह योजना भी पूरी नहीं हो पायी।
अगले 30 साल तक वीर दुर्गादास इसी काम में लगे रहे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके प्रयास सफल हुए। 20 मार्च, 1707 को महाराजा अजीत सिंह ने धूमधाम से जोधपुर दुर्ग में प्रवेश किया। वे जानते थे कि इसका श्रेय दुर्गादास को है, अतः उन्होंने दुर्गादास से रियासत का प्रधान पद स्वीकार करने को कहा; पर दुर्गादास ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उनकी अवस्था भी अब इस योग्य नहीं थी। अतः वे अजीतसिंह की अनुमति लेकर उज्जैन के पास सादड़ी चले गये। इस प्रकार उन्होंने महाराजा जसवन्त सिंह द्वारा उन्हें दी गयी उपाधि‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ को सत्य सिद्ध कर दिखाया। उनकी प्रशंसा में आज भी मारवाड़ में निम्न पंक्तियाँ प्रचलित हैं –
माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास
मार गण्डासे थामियो, बिन थाम्बा आकास।।

